धर्म का मर्म ©डॉ आनंद प्रदीक्षित
Updated: Apr 11, 2021
हिंदू धर्म और कुछ विचार
* प्रस्तुति डॉ आनन्द प्रदीक्षित
धर्म शास्त्रीय स्रोतों से साभार
धर्म सभी के द्वारा अनुसरण करने योग्य होता है, धारयते प्रजा । धर्म के पालन मे आयु, लिंग, सम्पत्ति, पर आदि का किसी प्रकार का भेद नही होता। सामान्य धर्म इस सत्य पर आधारित है कि सभी धर्म समान है तथा सभी धर्मों का उद्देश्य मानव समाज का कल्याण करना है। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और सामान्य धर्म का उद्देश्य मानव की इसी श्रेष्ठता को बनाए रखना है। सामान्य धर्म सभी प्राणी मात्र के लिए है। इसे सर्वव्यापी मानव धर्म कहा जा सकता है।
इसके लिए गुणों की संख्या दस है--
1. धृति
धृति का तात्पर्य जीभ अथवा जननेन्द्रियों को संयमित रखना है। जो व्यक्ति इस गुण को विकसित कर लेता है, वह धीर कहलाता है।
2. क्षमा
सबल होते हुए भी उदार कार्य करना क्षमा कहलाता है, किन्तु कायरता क्षमा नही है।
3. संयम
शारीरिक और मानसिक वासनाओं को रोककर अपने को शुद्ध और नियमित बनाना संयम है।
4. अस्तेय
सामान्यतया अस्तेय का तात्पर्य चोरी न करना है, जो इसे अपना लेता है उसे सारी सम्वृध्दि अपने आप मिल जाती है।
5. शुचिता
शुचिता का तात्पर्य पवित्रता है। शुचिता मन, जीवात्मा और बुद्धि की पवित्रता का नाम है।
6. इन्द्रिय-निग्रह
मानव का एक निश्चित लक्ष्य होता है। उस लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव है, जब वह इन्द्रियों पर नियंत्रण रखे। इन्द्रिय निग्रह का तात्पर्य इन्द्रियों को नियंत्रित रखना है।
7. धी , धारणा
धी का अर्थ बुद्धि है। मानव बुद्धि का समुचित विकास करना धर्म का महत्वपूर्ण लक्षण है।
8. विद्या
विद्या प्राप्त कर लेने से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह और मन की क्षुद्र प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
9. सत्य
सत्य धर्म का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। " सत्यं वद् धर्मम् चर" अर्थात् सत्य का अनुसरण ही धर्म का अनुसरण है। सत्य की पहचान और सत्य के अनुसरण के समान दूसरा कोई धर्म नही है।
10. अक्रोध
जैसा गीता मे कहा गया है कि कामनाओं की पूर्ति मे विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है जिससे व्यक्ति असामान्य व्यवहार करने लगता है। क्रोध संयम रहित हो जाता है। संयम रहित होने से वह धर्म और अर्धम मे भेद करने मे समर्थ नही होता। क्रोध न करना भी मानव धर्म है। अक्रोध के द्वारा ही मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन कर सकता है।
धर्म की विशिष्ट पहचान
भारतीय सांस्कृतिक योजना मे जीवन के दो पक्ष होते है- सामान्य और विशिष्ट। सामान्य कार्य व्यवहारों के सफलतापूर्वक सम्पादन और व्यक्तित्व के सर्वतोन्मुखी विकास की दृष्टि से व्यक्ति मे कतिपय सामान्य गुणों का होना जरूरी होता है जिसे धर्म के सामान्य लक्षण के रूप मे निरूपित किया गया है किन्तु जीवन मे अपने हितों के साधन मे व्यक्ति को विशिष्ट स्थितियों के अनुरूप कतिपय विशिष्ट भूमिकाएँ करनी होती है जिसे विशिष्ट धर्म या स्वधर्म कहा जाता है।
स्वधर्म निर्दिष्ट स्थितियों के सन्दर्भ मे व्यक्ति की भूमिका को परिभाषित करता है जिससे एक तो व्यक्ति को कार्य करने मे आसानी होती है, दूसरे पारस्परिक आदान-प्रदान मे संशय व अनिश्चितता की स्थिति नही बनती और समाज मे निजी हितों की पूर्ति मे अनावश्यक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष से बचा जाता है। विशिष्ट धर्म के प्रमुख स्वरूप निम्म है--
1. वर्ण धर्म
वर्ण-व्यवस्था मे विभिन्न वर्ण के व्यक्तियों के लिए जिन कर्तव्यों की विवेचना की गई है, उनका विवरण इस प्रकार है--
(अ) ब्राह्मण
चारों वर्णों मे ब्राह्मण श्रेष्ठ है। उसकी श्रेष्ठता का आधार उसकी सात्विक प्रवृत्ति और निश्छल स्वभाव है। ब्राह्मण को निम्न धर्मों का पालन करना चाहिये--
1. अध्ययन
2. अध्यापन
3. यज्ञ करना
4. यज्ञ कराना
5. दान देना
6. दान लेना।
(ब) क्षत्रिय
इनके निम्म धर्म कर्त्तव्य थे--
1. प्रजा की रक्षा
2. कानून निर्माण
3. पढ़ना
4. दान देना
5. यज्ञ करना
6. स्वाभिमान
7. चातुर्य
8. धैर्य तथा तेज।
(स) वैश्य
वैश्यों के निम्म धर्म थे--
1. पशु पालन और कृषि
2. अध्ययन
3. दान देना
4. व्यापार।
(द) शूद्र
शुद्रों का धर्म इन द्धिज वर्गों की सेवा करना था।
2. आश्रम धर्म
आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्य की आयु 100 वर्ष की मानी गयी है। इन 100 वर्षों को चार बराबर भागों मे विभाजित किया गया है। ये चार भाग इस प्रकार है--
1. ब्रह्राचर्य
2. गृहस्थ
3. वानप्रस्थ
4. सन्यास।
इन्ही चार भागों को चार आश्रमों की संज्ञा दी गयी है।
3. कुल धर्म
वर्ण धर्म और आश्रम धर्म के बाद तीसरा विशिष्ट धर्म कुल धर्म है। कुल का तात्पर्य परिवार से है। भारतीय संस्कृति मे परिवार को अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। कुल धर्म का तात्पर्य है परिवार के सभी सदस्यों द्वारा दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा परिवार की परम्परा को बनाए रखना। कुलधर्म के अन्तर्गत निम्न धर्म आते है--
1. पति धर्म
2. पत्नी धर्म
3. पुत्र धर्म
4. मातृ धर्म
4. राज धर्म
राजधर्म के अन्तर्गत राता द्वारा दोषी व्यक्तियों को दण्डित करना सम्मिलित है। राजा को समाज और धर्म का रक्षक माना जाता है। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को गति प्रदान करने मे राजधर्म का महत्वपूर्ण स्थान है।
5. युग धर्म
यह धर्म परिवर्तन को स्वीकार करता है। हिन्दू धर्म मे परिवर्तित परिस्थितियों के महत्व को स्वीकार किया गया है तथा इनके अनुसार व्यक्ति के धर्म या कर्तव्यों की विवेचना की गई है। उदाहरण के लिए--
1. सतयुग = तप धर्म
2. त्रेता युग = ज्ञान धर्म
3. द्धापर युग = यज्ञ धर्म
4. कलियुग = दान-धर्म।
6. मित्र धर्म
एक मित्र द्वारा दूसरे मित्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों का सम्पादन करना ही मित्र धर्म है। भारतीय धर्म मे मित्रता को अत्यंत ही महत्व प्रदान किया गया है। मित्रता के कारण समाज मे सामाजिक सम्बन्धों का विकास होता है तथा सामाजिक संगठन बनता है।
धर्म का अर्थ
किसी से वैर नहीं
हिंसा नहीं , बल प्रयोग नहीं
घृणा नहीं है
