नेपाल-दैनिक जागरण से साभार
नेपाल में लंबे समय से जारी राजनीतिक गतिरोध के बीच संविधान की जीत
(साभार दैनिक जागरण )
इन दिनों शहरी जलनिधियों पर कोरोना वायरस के असर का दुनिया भर में अध्ययन हो रहा है। इसी क्रम में एक चिंताजनक तथ्य यह सामने आया है कि हैदराबाद की झीलों में लगातार महानगरीय गंदगी के गिरने से उनमें कोरोना के लिए जिम्मेदार वायरस की जेनेटिक सामग्री मिली है। ऐसा ही अध्ययन ग्रामीण व अद्र्ध-शहरी इलाके की झीलों में भी किया गया, पर वहां से ऐसी सामग्री नहीं मिली। जाहिर है, हैदराबाद में बगैर शोधित गंदगी के झीलों में पहुंचने का ही यह कुप्रभाव है। अध्ययन में फिलहाल तो यही कहा गया है कि झील के पानी में अभी जो ‘जेनेटिक मैटेरियल’ मिला है, वह वास्तविक वायरस नहीं है। इसलिए इससे संक्रमण फैलने की गुंजाइश कम है। हैदराबाद हुसैन सागर झील के लिए मशहूर है, पर इस महानगर की सीमा में कभी 10 हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल की 169 झीलों के अलावा सैकड़ों तालाब हुआ करते थे, जो देखते-देखते कॉलोनी, सड़क या बाजारों में गुम हो गए। इन झीलों का कुल क्षेत्रफल ही 9,056 वर्ग किलोमीटर है। जाहिर है, यदि इनमें साफ पानी होता, तो हैदराबाद में कई तरह के रोग फैलने से बच जाते।
‘काउंसिल ऑफ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल रिसर्च’, ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी’, ‘सेंटर फॉर सेलुलर ऐंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी’ और ‘एकेडमी ऑफ साइंटिफिक ऐंड इनोवेटिव रिसर्च’ ने मिलकर यह अध्ययन किया है, जिसमें विगत सात महीने के दौरान भारत में कोविड की पहली और दूसरी लहर को कवर किया गया है। इसके लिए हैदराबाद की हुसैन सागर और कुछ अन्य झीलों को चुना गया। हुसैन सागर के अलावा नाचारम की पेद्दा चेरुवु और निजाम तालाब में भी वायरस के जेनेटिक मैटेरियल मिले हैं। स्टडी में पता चला है कि पानी में ये तत्व इस साल फरवरी में बढ़ने शुरू हुए, जब देश में महामारी की दूसरी लहर की शुरुआत हुई। ठीक इसी समय घाटकेसर के पास इदुलाबाद के अद्र्ध-शहरी इलाकों व ग्रामीण अंचल की पोतुराजू झील में भी अध्ययन किया गया और इन दोंनों जगहों पर ये तत्व नहीं मिले। मेडरक्सिव विज्ञान पत्रिका में 12 मई को प्रकाशित एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों के दल ने लिखा है, कोरोना संक्रमण के मुंह से फैलने की आशंका पर दुनिया भर में हो रहे शोध के दौरान जब हैदराबाद की झीलों का अध्ययन किया गया, तो पता चला कि कोविडग्रस्त लोगों के घरों और अस्पतालों के मल-जल को बगैर शोधन के झीलों में गिरने देने से संकट पैदा होने की आशंका है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि लगभग 778 वर्ग किलोमीटर में फैले हैदराबाद महानगर का विस्तार, पर्यावरणीय कानूनों की अनदेखी और घरेलू व औद्योगिक कचरों के मूसी नदी व तालाबों में सतत गिरने से यहां भीषण जल-संकट खड़ा होता है। अब यह नया संकट है कि जीवनदायी जल-निधियों में खतरनाक वायरस के तत्व मिल रहे हैं और इसके निदान का कोई तात्कालिक उपाय सरकार व समाज के पास नहीं।
हैदराबाद की प्राकृतिक विरासत का विध्वंस पिछले 50 वर्षों के विकास के कारण हुआ। पिछले कुछ दशकों से सरकार व निजी संस्थाओं ने बड़े पैमाने पर अतिक्रमण कर झीलों को पक्के इलाके में बदल दिया। हैदराबाद में कई तालाब कुतुबशाही और बाद में आसफ जाह ने बनवाए थे। बडे़ तालाब शासकों या मंत्रियों द्वारा बनवाए गए, जबकि छोटे तालाब जमींदारों ने बनवाए थे। बहरहाल, हैदराबाद के विकास और संस्कृति की सहयात्री हुसैन सागर झील यहां की बढ़ती आबादी व आधुनिकीकरण का दवाब नहीं सह पाई। इसका पानी जहरीला होता गया और लगातार कोताही के चलते यह गाद से भी पट गई। 1966 में इसकी गहराई 122 मीटर थी, जो आज घटकर बमुश्किल पांच मीटर रह गई है। गौर कीजिए, हैदराबाद की झीलें तो प्रयोग के तौर पर ली गईं, यदि बेंगलुरु, भोपाल, दरभंगा या उदयपुर की झीलों का अध्ययन हो, तो परिणाम इससे भिन्न नहीं होंगे। महामारियों का मूल कारण जैव-विविधता से छेड़छाड़ है। ऐसे में, झीलों, जल-स्रोतों के संरक्षण पर नए सिरे से सोचने का वक्त आ गया है। साफ दिख रहा है कि उत्तर-कोरोना विश्व अलग तरह का होगा और उसमें अनियंत्रित औद्योगिक गतिविधियों या पर्यावरणीय कोताही के परिणाम मानव जाति के लिए आत्महंता सिद्ध होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)